न आलिया भट्ट् में हैं दम और न दिपिका पादुकोण कर पाएगी ये काम, मर्दानी के बाद रानी मुखर्जी ने मचा दिया गदर, मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे में रानी ने कर दिया कमाल !

बॉलीवुड फिल्मों से कहानी और किरदार जैसे दम खोते जा रहे हैं लेकिन कभी कभी ऐसी फिल्में भी आ जाती है जो सिनेमा को जीवंत कर देती है वैसे तो साउथ फिल्मों का जलवा देखने को मिल रहा है लेकिन मर्दानी के बाद रानी मुखर्जी एक ऐसा थ्रिलर ड्रामा लेकर हाजिर हुईं हैं जिसमें उनकी एक्टिंग तो कमाल है ही साथ ही साथ फिल्म की कहानी ने भी करियों के करियर को खत्म करने के संकेत दे दिए हैं फिल्म जगत की कई हसीनाएं भी अब चिंता में डूबी हैं कि अब उनका क्या होगा

दरअसल रानी मुखर्जी उम्र के इस पड़ाव में भी इतनी जबरदस्त एक्टिंग का जलवा बिखेर रही हैं कि बॉलीवुड तो हैरान है ही साथ ही साथ साउथ सिनेमा के दिमाग की बत्ती भी गुल है कि इतना जबदस्त सब्जेक्ट और इतनी जबरदस्त स्टोरी आखिर उनसे कैसे छूट गई बताएंगे रानी की नई फिल्म की पूरी कहानी लेकिन पहले आप बताएं कि रानी मुखर्जी की कौन सी फिल्म आपको अबतक की सबसे दमदार फिल्म लगी है आपकी राय क्या है हमें कमेंट करके जरूर बताएं अब बात करते हैं रानी की नई फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे की तो हिंदी सिनेमा में ऐसी फिल्मों की कमी नहीं है, जिनकी कहानियां किसी वास्तविक घटना से ली गयी हों मर्डर मिस्ट्री से लेकर आतंकवाद और युद्ध की घटनाओं तक को पर्दे पर दिखाया गया है, मगर इनके बीच कुछ कहानियां ऐसी भी आयी हैं, जो मानवीय भावनाओं के संवेदनशील पहलू को दिखाती हैं इन कहानियों में भावनाओं का ज्वार ऐसा रहता है कि आंखें छलक उठती हैं…ऐसी ही एक कहानी मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे आशिमा छिब्बर निर्देशित मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे, सागरिका चक्रवर्ती की कहानी से प्रेरित है, जिसके बच्चों की कस्टडी नार्वे की चाइल्ड वेलफेयर सर्विस अपने पास रख लेती है, क्योंकि उनके अनुसार वह अपने बच्चों की सही से देखभाल नहीं कर रही थीं

फिल्म की कहानी भी इसी दर्दनाक घटना से शुरू होती है, जब नार्वे सरकार के नियमों के मुताबिक चाइल्ड वेलफेयर विभाग वाले देबिका यानि रानी मुखर्जी और अनिरुद्ध चटर्जी यानि अनिर्बन भट्टाचार्य के दोनों बच्चों शुभ और शुची को उठाकर ले जाते हैं उन्हें फास्टर होम में रख दिया जाता है वजह बताई जाती है कि 10 हफ्तों की निगरानी के बाद देखा गया है कि देबिका हाथ से अपने बच्चों को खाना खिलाती है, माथे पर टीका लगाती है, बच्चे को साथ सुलाती है यहां से शुरू होती है, देबिका की अपने बच्चों को वापस पाने की जद्दोजहद  अनिरुद्ध नार्वे की नागरिकता पाने में इतना उलझा हुआ है कि उसे देबिका का दर्द नहीं दिखता  सब मिलकर देबिका को मानसिक तौर पर बीमार साबित करने में लग जाते हैं देबिका, नार्वे से लेकर भारत सरकार तक हर किसी से मदद मांगती है क्या वो कामयाब होगी, इस पर कहानी बढ़ती है मेरे डैड की मारुति जैसी कॉमेडी फिल्म बना चुकीं आशिमा छिब्बर ने इस फिल्म को संवेदनशीलता से बनाया है

 हालांकि, फिल्म कई जगहों पर भावनाओं का संतुलन नहीं साध पाती है, पर अंत तक उस मुकाम पर पहुंच जाती है, जिसके लिए बनाई गई है शुरुआत में फिल्म से जुड़ने में समय लगता है, क्योंकि कहानी तेजी से भागती है  जितनी देर में आप समझेंगे कि मां से बच्चों को छीन लिया गया है, तब तक वो शॉट निकल भी जाता है, जबकि वही सीन फिल्म की नींव है कई जगहों पर हिंदी के अलावा बांग्ला और नार्वेजियन भाषा का प्रयोग किया गया है, हो सकता है कई लोगों को समझने में दिक्कत हो, हालांकि सीन के बहाव में वो रुकावट नहीं लगता दिल में भारीपन तब महसूस होता है,  जब कोर्ट में अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में एक मां अपने भारतीय तौर-तरीकों को भूलकर नार्वे के अंदाज में अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए हर शर्त मानने को तैयार होती है फिल्म में भारत और नार्वे के कोर्ट में दो ऐसे सीन हैं, जहां पर आंखें नम होंगी एक मां के अटल विश्वास को दर्शाता है कि वो अपने बच्चे पाकर रहेगी घरेलू हिंसा का मुद्दा भी वो सतही तौर पर छूती हैं रानी ने बताया था कि इस फिल्म को करने से पहले वो सागरिका से नहीं मिली थीं फिर भी वो सागरिका के दर्द, गुस्से और संघर्ष को महसूस कर पाईं देबिका के व्यक्तित्व में एक बदलाव है जैसे जब तक वो सिर्फ एक पत्नी है, वो पति की मार सहती है, लेकिन जब उसके बच्चे उससे दूर होते हैं तो वो किसी घायल शेरनी से कम नहीं होती फिल्म के पर्दे पर आने के बाद रिस्पांस अच्छा मिल रहा है देखना ये है कि जितनी दमदार एक्टिंग रानी ने की है क्या उतनी ही दमदारी के साथ फिल्म कलेक्शन कर पाती है